आखिर भीष्म पितामह ने ऐसा कौन सा पाप किया था, जिसकी वजह से उन्हें बाणों की सैया मिली ?

दोस्तो हमारे हिंदू धर्म में कर्म की प्रधानता प्रारंभ से ही रही है |

गीता में भगवान श्री कृष्ण ने स्वयं एक नहीं बल्कि अनेक बार ये बात कही है की जो प्राणी जैसा कर्म करता है उसे वैसा ही फल मिलता है लेकिन जब हम महाभारत का अध्ययन करते है तो हम पाते है की पितामह एक ऐसे चरित्र है जिन्होंने जिस निस्वार्थ भाव से हस्तिनापुर की सेवा की थी वो शायद ही किसी अन्य ने की होगी परंतु फिर भी उन्हें जो आपार कष्ट भोगने पड़े उनसे तो आप भली भांति परिचित ही है की किस प्रकार से महाभारत का युद्ध समाप्त होने के बाद उन्हें कई दिनों तक नुकीले बाणों की सैया पर सोना पडा था | अब प्रश्न उठता है की आखिर उन्हे ही क्यों इस प्रकार के आपार कष्ट भोगने पड़े | भीष्म पितामह 18 दिनों तक बाणों की सैया पर लेटे रहे , इस बीच कई वैध उनके उपचार के लिए बुलाए गए परंतु वे उन्हे मना कर देते और कहते की मुझे सूर्य के उत्तरायण होने का इंतजार है बस तब में अपने प्राण त्याग दूंगा | तब तक ये सर सैया ही मेरी चिता है | वैसे आप तो जानते है की वे ऐसा सिर्फ इसलिए कर पाए क्योंकि उन्हें अपने पिता महाराज शांतनु से इच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त था | हालांकि इस दौरान उनके सभी बंधु बांधव उनसे मिलने आते रहते | लेकिन जो प्रश्न उनके मन में था उसका उत्तर किसी के भी पास नहीं था | वे मन ही मन सोचते रहते की आखिर उन्हे ही क्यों इस पीड़ा दायक बाणों की सैया पर सोना पड़ा |

अंतः जब एक दिन भगवान श्री कृष्ण उनसे मिलने आते है , तो पितामह से रहा नहीं गया ओर उन्होंने उनसे पूछा ?

की हे मधुसुधन ! मुझे मेरे अब तक के 10 जन्म याद है जिनमे मेने शायद ही कोई ऐसा पाप किया हो जिससे की मुझे इस असहनीय पीड़ा को भोगना पड़े | फिर आखिर विधाता ने मुझे ही क्यों इस आपार कष्ट को भोगने के लिए चुना |

तब भगवान श्री कृष्ण ने कहा, हे पितामह ! आपको आपके केवल 10 जन्म याद है लेकिन में आपको उसके पूर्व के जन्म व उसमे किए गए पाप भी बता सकता हूं | और संभवत इससे आपको स्पष्ट भी हो जाएगा की उसी पाप के कारण आपको यह अपार कष्ट भोगना पड़ रहा है | इतना सुनकर पितामह के मुख मंडल पर ऐसे भाव आ जाते है जैसे की मानो अब उनकी बहुत बड़ी समस्या का निराकरण होने वाला है | भगवान आगे कहते है ये बात आपके 10 जन्मों से पूर्व की है जब आप एक राजकुमार हुआ करते थे और आखेट करने के लिए अक्सर एक वन से दूसरे वन में यात्रा किया करते थे | ऐसे ही एक दिन जब आप एक वन से गुजर रहे थे तब आपके रास्ते में एक सर्प आ गया था तब आपने बिना कुछ सोचे समझे उस सर्फ को अपने रास्ते से हटा दिया परंतु दुर्भाग्य वश वो सांप कांटो की झाड़ियों में जा फसा वो झाड़ियों से जितना अधिक निकलने का प्रयास करता उतने ही कांटे उसकी पीठ में चुभ जाते | इस प्रकार से वो करकेंटा लगभग 18 दिनों तक उसी कष्ट दायक अवस्था में जीवित रहा और इस दौरान वो ईश्वर से यही प्रार्थना करता रहा की जिस तरह से में तड़प तड़प कर मृत्यु को प्राप्त हो रहा हूं ठीक उसी प्रकार से उस राजकुमार को भी मृत्यु प्राप्त होनी चाहिए और अंतः एक दिन उसने अपने प्राण त्याग दिए |

इसी वजह से हे पितामह ! आप अपने उसी पाप का फल भोग रहे है | परंतु इतना सुनकर पितामह के मन में एक और नया प्रश्न जन्म ले लेता है वे कहते है हे माधव ! यदि ऐसा है तो फिर कैसे मेने अपने पूर्व के 10 जन्म बिना किसी कष्ट के बिताए . आखिर क्यों मुझे उस पाप की सजा उन जन्मों में नहीं मिली | इस पर भगवान श्री कृष्ण कहते है इसके पीछे का मुख्य कारण ये है की उन जन्मों में अपने कोई भी ऐसा कृत्य नहीं किया था जो पाप की श्रेणी में आता हो इसलिए आपको उन जन्मों में उस करकेंटा का श्राप नहीं लगा था | इतना सुनकर पितामह कहते है हे देवकी नंदन कृपया मुझे बताए की आखिर कार इस जन्म में मुझसे ऐसी क्या भूल हो गई जिसकी वजह से मुझे इतने पुराने श्राप को भोगना पड़ रहा है |

इस पर वे कहते है हे पितामह भला इसमें भी कोई कहने वाली बात है क्योंकि सत्य तो आपसे भी छुपा नहीं है | परंतु फिर भी यदि आप कहते है तो में आपको बता देता हूं की इस जन्म में जब आपने हस्तिनापुर की रक्षा करने का प्रण किया और साथ ही उसका पालन भी किया परंतु फिर भी आपने हस्तिनापुर की गद्दी पर बैठने वाले उस अधर्मी और अल्प बुद्धि वाले अत्याचारी दुर्योधन का साथ दिया बस यहीं से , आपके पहले पाप की शुरुआत हो गई थी . इसके बाद आपसे दूसरा पाप तब हुआ जब आपकी आंखों के सामने उस भरी सभा में पांडवों के साथ धियुत क्रीड़ा में छल और आपकी कुलवधु का चीर हरण हुआ परंतु न ही आपने उस कपटी शकुनि को टोका और न ही दुर्योधन , दुशासन को ऐसा करने से रोका |

बस इन्ही कुछ पाप कृत्यों के कारण आपके पुण्य कर्मों का क्षय हो गया और पूर्व जन्म का पाप पुनः एक बार फिर से फलित हो गया और परिणाम आपके सामने है | इतना सुनकर पितामह के मुख मंडल पर एक नई चमक तैर उठी मानो अब उनके सारे कष्ट समाप्त हो गए हो | इसके कुछ समय बाद ही सूर्य देव उत्तरायण हो गए तब भीष्म पितामह ने अपनी देह त्यागी और वे सदा सदा के लिए परम में विलीन हो गए | तो दोस्तो अब तो आप जान ही गए होंगे की किस प्रकार से हमारे द्वारा किए गए सतकर्म ही हमे कष्टों से बचाते है और किस प्रकार से हमारे द्वारा किए गए दुष्कर्म ही हमारे कष्टों को और भी बड़ा देते है |

दोस्तो तो उम्मीद करते है की आपको कहानी पसंद आई होगी, कॉमेंट्स में जय श्री कृष्ण लिखना न भूले |


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